भोग त्याग पूर्वक

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अक्सर पूरे दिन का चिंतन सुबह की सैर के समय प्रभु चिन्तन और गायत्री जाप करते समय ईश्वर किसी ना किसी ढंग से दे देते हैं । उस दिन गोआ में मीटिंग से पहले सुबह घूमते ईश्वर ने ही तो वह प्राकृतिक दृश्य दिखाकर शायद कुछ सन्देश ही तो दिया था जो आज इस लेख में आप सभी से सांझा कर रहा हूँ। बागा बीच पर जाने से पहले रास्ते में एक पेड़ पर मधुमक्खी का छत्ता लगा हुआ था और मधुमक्खी फूलों पर घूम घूम कर पराग इकट्ठा करके छत्ते पर मधु निर्माण कर रही थी और अचानक एक मधुमक्खी उसी मधु में अन्दर घुस गई और मधु में फस कर छटपटा कर मर गई। उस मधुमक्खी की इस दर्दनाक मौत ने मुझे सोचने पर विवश कर दिया । मधुमक्खी का लोभ और मधु सेवन का लालच उसकी असमय दर्दनाक मौत का कारण बन गया था।
मैं सोच रहा था कि हम सभी लोग भी तो क्या यहीं कर रहे और अपने मनुष्य जीवन के उद्देश्य को भूल कर सांसारिक सुखों को इकट्ठा करते हुए उन्हीं सांसारिक सुखों में ठीक उस मधुमक्खी की तरह फस कर तडफ़ तडफ़ खुद अपनी मौत और विनाश का कारण तो नहीं बन रहे। यह हम पर निर्भर करता है कि हम सभी ईश्वर द्वारा दिए गए निर्देशों को समझ कर उसे अपने जीवन में धारण करते हुए उस के अनुकूल आचरण करते हैं या फिर अपने किसी स्वार्थ काम क्रोध लोभ मोह ईर्ष्या द्वेष जैसी कलुषित भावनाओं में फंस कर ईश्वर के निर्देश को सुन कर भी अनसुना कर देते हैं। ईश्वर हमारे सच्चे मित्र हैं इन्द्रस्य युज्य सखा। वही परमात्मा हम सभी जीवात्माओं का सच्चा मित्र है। वह ईश्वर तो हमारा सच्चा मित्र होकर हमें हमारे प्रत्येक कार्य से पूर्व हमें हमारी अंतरात्मा की आवाज़ बन कर हमें सन्देश निर्देश आदेश जरूर देते हैं।यजुर्वेद के 40 वें अध्याय के 5 वें मन्त्र में कहा गया तददूरे तद्वंतिके। अर्थात हमारे प्रभु हमारे अत्यन्त निकट लेकिन हम अपने स्वार्थ काम क्रोध लोभ मोह ईर्ष्या द्वेष आदि के कारण अपने निकट रहने वाले ईश्वर से अत्यंत दूर रहते हैं। हमारे लिए अपने सच्चे मित्र ईश्वर के सन्देश आदेश को सुनने समझने के लिए अपने ईश्वर के निकट रहना चाहिए और उसके लिए आवश्यक है कि हम अपने स्वार्थ को त्याग कर अन्तर्यात्रा करते हुए अपने मित्र को अपने भीतर ही अनुभव कर सकते हैं। ईश्वर सर्वभूतानां हृदयेशे तिष्ठति। अर्थात हमारा ईश्वर हमारे आत्मा में अपने अति सूक्ष्म और पूर्ण रूप में हमारी आत्मा में ही रहते हैं।
अब प्रश्न था कि उस सुख स्वरूप कस्मै देवाय द्वारा प्रदत्त प्रकृति के समस्त ऐश्वर्य फिर आखिर किस के लिए हैं। उस आनन्द स्वरूप से आनन्द और सुख स्वरूप से हम सुख की कामना अभिलाषा ही तो करते हैं। उस परमेश्वर के प्रदत्त ऐश्वर्य हमारे सभी के भोग के लिए ही तो हैं। आखिर इन सुखों ऐश्वर्य का भोग हम कैसे करें। वेद भगवान आदेश देते हैं तेन त्यक्तेन भुंजीथा। अर्थात हमें इस सभी ऐश्वर्य सुखों का त्याग पूर्वक भोग करना चाहिए। अब प्रशन पैदा होता है कि त्याग पूर्वक भोग किसे कहते हैं और यह किस प्रकार किया जा सकता है। हमें जीवन में केवल यज्ञ शेष गृहण करना चाहिए अर्थात परोपकार के उपरांत जो शेष बचे उसे प्रसाद स्वरूप लेना चाहिए। इसलिए ही ईश्वर को भी यज्ञरूप भी कहा गया क्योंकि ईश्वर ने इस समस्त प्रकृति के सभी ऐश्वर्य का निर्माण हम सभी के उपयोग के लिए परोपकार के भाव से ही तो किया है। नदी कभी अपना जल नहीं पीती और ईश्वर भी कभी अपने द्वारा निर्मित प्रकृति के ऐश्वर्य का भोग नहीं करते। ठीक उसी प्रकार हमें भी कभी भी अपने भाग से अधिक भोग नहीं करना चाहिए और केवल यज्ञ शेष अर्थात परोपकार पूर्वक यज्ञ के उपरांत ही शेष बचे यज्ञ शेष को लेना चाहिए। केवलाधो भवति केवलाधि । अर्थात अकेला खाने वाला पाप खाता है इसलिए पहले सभी को भोजन करवा कर खुद शेष बचे भोजन को लेने वाली गृह स्वामिनी अन्नपूर्णा कहलाती है। कहा भी जाता है वण्ड खा ते खण्ड खा। अर्थात बांट कर अपने भाग को लेने वाला हमेशा यज्ञ शेष लेकर सुखी रहता है।
हमें ईश्वर प्रदत्त प्रकृति के ऐश्वर्य का भोग तो करना चाहिए लेकिन केवल त्याग पूर्वक

नरेन्द्र आहूजा विवेक
राज्य औषधि नियन्त्रक हरियाणा
प्रान्तीय प्रभारी केन्द्रीय आर्य युवक परिषद हरियाणा

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